अटल बिहारी वाजपेयी की 10 श्रेष्ठ कविताएं, यहां पढ़ें
अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। आज 25 दिसंबर को पूरा देश उनकी जयंती मना रहा है। वाजपेयी जी ने तीन बार देश के प्रधानमंत्री का कार्यभार संभाला। अटल बिहारी वाजपेयी जी को सन् 2015 में देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया गया था। राजनेता होने के साथ ही वे एक कोमल हृदय के कवि भी थे। आज हम आपको उनकी 10 ऐसी कवितायेँ बतायेगे जो पत्थरों में जान फूंक सकती हैं।
कदम मिलाकर चलना होगा
बाधाएं आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटाएं,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएं,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।हास्य-रूदन में, तूफानों में,
अगर असंख्यक बलिदानों में,
उद्यानों में, वीरानों में,
अपमानों में, सम्मानों में,
उन्नत मस्तक, उभरा सीना,
पीड़ाओं में पलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।उजियारे में, अंधकार में,
कल कहार में, बीच धार में,
घोर घृणा में, पूत प्यार में,
क्षणिक जीत में, दीर्घ हार में,
जीवन के शत-शत आकर्षक,
अरमानों को ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।सम्मुख फैला अगर ध्येय पथ,
प्रगति चिरंतन कैसा इति अब,
सुस्मित हर्षित कैसा श्रम श्लथ,
असफल, सफल समान मनोरथ,
सब कुछ देकर कुछ न मांगते,
पावस बनकर ढलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।कुछ कांटों से सज्जित जीवन,
प्रखर प्यार से वंचित यौवन,
नीरवता से मुखरित मधुबन,
परहित अर्पित अपना तन-मन,
जीवन को शत-शत आहुति में,
जलना होगा, गलना होगा।
क़दम मिलाकर चलना होगा।
पंद्रह अगस्त का दिन कहता
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाकी है,
रावी की शपथ न पूरी है॥जिनकी लाशों पर पग धरकर
आज़ादी भारत में आई,
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पंद्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥हिंदू के नाते उनका दु:ख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहां कुचली जाती॥इंसान जहां बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियां भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कंठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन गुलामी का साया॥बस इसीलिए तो कहता हूं
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊं मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुन: अखंड बनाएंगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आज़ादी पर्व मनाएंगे॥उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएं,
जो खोया उसका ध्यान करें॥
दो अनुभूतियां
– पहली अनुभूति
बेनकाब चेहरे हैं, दाग बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूं
गीत नहीं गाता हूंलगी कुछ ऐसी नज़र बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूंपीठ मे छुरी सा चांद, राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं-दूसरी अनुभूति
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रातप्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूं
गीत नया गाता हूंटूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलकों पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा, रार नहीं ठानूंगा,काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
मौत से ठन गई
ठन गई!
मौत से ठन गई!जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यूं लगा जिंदगी से बड़ी हो गई।मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
जिंदगी सिलसिला, आज कल की नहीं।मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं,
लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?तू दबे पांव, चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर फिर मुझे आजमा।मौत से बेखबर, जिंदगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई, रात बंसी का स्वर।बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।हर चुनौती से दो हाथ मैंने किए,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भंवरों की बांहों में मेहमान है।पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ां का, तेवरी तन गई।मौत से ठन गई।
दूध में दरार पड़ गई
खून क्यों सफेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएं, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
पुनः चमकेगा दिनकर
आज़ादी का दिन मना,
नई ग़ुलामी बीच;
सूखी धरती, सूना अंबर,
मन-आंगन में कीच;
मन-आंगम में कीच,
कमल सारे मुरझाए;
एक-एक कर बुझे दीप,
अंधियारे छाए;
कह क़ैदी कबिराय
न अपना छोटा जी कर;
चीर निशा का वक्ष
पुनः चमकेगा दिनकर।
मैं न चुप हूं न गाता हूं
न मैं चुप हूं न गाता हूं
सवेरा है मगर पूरब दिशा में
घिर रहे बादल
रूई से धुंधलके में
मील के पत्थर पड़े घायल
ठिठके पांव
ओझल गांव
जड़ता है न गतिमयतास्वयं को दूसरों की दृष्टि से
मैं देख पाता हूं
न मैं चुप हूं न गाता हूंसमय की सदर सांसों ने
चिनारों को झुलस डाला,
मगर हिमपात को देती
चुनौती एक दुर्ममाला,बिखरे नीड़,
विहंसे चीड़,
आंसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूं।
न मैं चुप हूं न गाता हूं।
राह कौन सी जाऊं मैं?
चौराहे पर लुटता चीर
प्यादे से पिट गया वजीर
चलूं आखिरी चाल कि बाजी छोड़ विरक्ति सजाऊं?
राह कौन सी जाऊं मैं?सपना जन्मा और मर गया
मधु ऋतु में ही बाग झर गया
तिनके टूटे हुये बटोरू या नवसृष्टि सजाऊं मैं?
राह कौन सी जाऊं मैं?दो दिन मिले उधार में
घाटों के व्यापार में
क्षण-क्षण का हिसाब लूं या निधि शेष लुटाऊं मैं?
राह कौन सी जाऊं मैं ?
मैं अखिल विश्व का गुरु महान
मैं अखिल विश्व का गुरू महान,
देता विद्या का अमर दान,
मैंने दिखलाया मुक्ति मार्ग
मैंने सिखलाया ब्रह्म ज्ञान।
मेरे वेदों का ज्ञान अमर,
मेरे वेदों की ज्योति प्रखर
मानव के मन का अंधकार
क्या कभी सामने सका ठहर?
मेरा स्वर नभ में घहर-घहर,
सागर के जल में छहर-छहर
इस कोने से उस कोने तक
कर सकता जगती सौरभ भय।
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
सत्य का संघर्ष सत्ता से
न्याय लड़ता निरंकुशता से
अंधेरे ने दी चुनौती है
किरण अंतिम अस्त होती हैदीप निष्ठा का लिये निष्कंप
वज्र टूटे या उठे भूकंप
यह बराबर का नहीं है युद्ध
हम निहत्थे, शत्रु है सन्नद्ध
हर तरह के शस्त्र से है सज्ज
और पशुबल हो उठा निर्लज्जकिन्तु फिर भी जूझने का प्रण
अंगद ने बढ़ाया चरण
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की मांग अस्वीकारदांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते।
अटल बिहारी वाजपेयी FAQs
अटल बिहारी वाजपेयी जी का जन्म कब और कहा हुआ था?
अटल बिहारी वाजपेयी जी कितनी बार देश के प्रधानमंत्री बने थे?
अटल बिहारी वाजपेयी जी को भारत रत्न कब मिला था?
अटल बिहारी वाजपेयी जी की लोकप्रिय कविता कौनसी हैं?
अटल बिहारी वाजपेयी जी किस राजनितिक पार्टी के सदस्य थे?
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